- Hindi News
- Career
- West Bengal Students Protest; Naxalbari Movement History Explained | CPI M Charu Majumdar
7 घंटे पहलेलेखक: सृष्टि तिवारी
- कॉपी लिंक
24 मई 1967। पश्चिम बंगाल का नक्सलबाड़ी गांव। एक किसान धूप में जमींदार नगेन चौधरी के खेतों में फसल काट रहा था। जमींदार मुआयना करने पहुंचा तो किसान ने उससे कहा- ‘हुजूर, कुछ मजदूरी बढ़ा दीजिए। पहले भी कई बार तकलीफ बता चुका हूं।’ जमींदार ने पहले तो तवज्जो नहीं दी, लेकिन किसान अपनी बात दोहराता रहा। तभी जमींदार ने अपनी बंदूक निकाली और उस पर गोली दाग दी। किसान की मौके पर ही मौत हो गई।
ये खबर मिलते ही आस-पास के खेतों के किसान इकट्ठा हो गए और जमींदार नगेन चौधरी को दबोच लिया। फौरन एक सभा बुलाई गई और जमींदार को खींचकर उसमें ले जाया गया। इस सभा के नेता थे कानू सान्याल। ये वही कानू सान्याल थे जिन्हें पहला नक्सली माना जाता है।
खुली सुनवाई में कानू ने कहा, ‘सबसे पहले हम तुम्हें तुम्हारा जुर्म कुबूल करने का मौका देते हैं।’ नगेन ने अपनी गलती मानने से इनकार कर दिया और उल्टे किसानों को ही गालियां देने लगा। तभी किसानों के बीच से 6 फीट 5 इंच का एक आदिवासी शख्स ‘जंगल संथाल’ खड़ा हुआ और एक झटके में नगेन चौधरी का सिर कलम कर दिया।
इसी घटना को नक्सलवाद की पहली चिनगारी माना जाता है। नक्सलबाड़ी गांव से शुरू होने के चलते ही इसे नक्सलवाद नाम मिला। किसानों और मजदूरों का ये विरोध जल्द ही शहरों के कॉलेज-यूनिवर्सिटी के छात्रों ने अपने हाथों में ले लिया। हालांकि कुछ महीने बाद ही ये हिंसक नक्सली आंदोलन में बदल गया जो 4 दशक से देश की आंतरिक सुरक्षा पर खतरा बना हुआ है।
आज रकस के तीसरे एपिसोड में पश्चिम बंगाल से शुरू हुए इसी आंदोलन की कहानी…
1949 में छात्र रहते हुए कानू सान्याल ने CPI को बैन करने के विरोध में बंगाल के मुख्यमंत्री बिधान चन्द्र रॉय को काले झंडे दिखाए थे।
नक्सलबाड़ी में जमींदार की ये हत्या बड़ी घटना थी। अगले ही दिन, यानी 25 मई को पुलिस हरकत में आ गई। गांव में छापामारी शुरू हो गई। ऐसे ही एक छापे के दौरान पुलिस इंस्पेक्टर सोनम वांगडी ने जैसे ही एक घर के दरवाजे पर दस्तक दी, अंदर से एक महिला ने जहर बुझा तीर चला दिया। सोनम वांगडी की वहीं मौत हो गई। इसके बाद नक्सलबाड़ी को छावनी में बदल दिया गया।
ग्रामीणों और पुलिस के बीच घमासान छिड़ गया। गांव वालों ने पुलिस को गांव में आने से रोक दिया। 25 मई को पुलिस को सूचना मिली कि गांव वाले एक सभा करने वाले हैं। पुलिस नक्सलबाड़ी बाजार से एक किलोमीटर दूर निगरानी के लिए पहुंच गई। लगभग 200 महिलाओं और कुछ पुरुष आंदोलनकारियों ने एक स्कूल के पास कैंप लगाया हुआ था। यहां किसान जमींदारों का विरोध कर रहे थे।
पुलिस वहां सादे कपड़ों में जीप में पहुंची मगर गांव वालों ने उन्हें घेर लिया। पुलिस बोली, ‘हम कुछ नहीं करेंगे, हमें जाने दो।’ इस पर किसान पीछे हट गए। मगर 25 मीटर दूर जाते ही पुलिस ने पलटकर अंधाधुंध गोलियां चला दीं। इस फायरिंग में 11 गांव वालों की मौके पर ही मौत हो गई। इसमें 8 महिलाएं, 1 पुरुष और 2 बच्चे शामिल थे।
इस घटना ने पूरे पश्चिम बंगाल में आग भड़का दी। 24 परगना जिले में किसान और मजदूर जमींदारों के खिलाफ खड़े हो गए।
किसान की हत्या के बाद नक्सलबाड़ी के किसानों ने पुलिस का गांव में आना वर्जित कर दिया था।
यूनिवर्सिटी के छात्रों ने लूटीं जमींदारों की फसलें
सितंबर 1968 में सबसे पहले सिलीगुड़ी की नॉर्थ बंगाल यूनिवर्सिटी के छात्रों ने ग्रामीणों की हत्या के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया। यही नहीं, छात्रों ने किसानों के साथ मिलकर माटीगारा के जमींदार नरसिंह गिरी के गोदाम से सारी फसल लूट ली। छात्रों ने साथ मिलकर कृषक संग्राम सहायक समिति बनाई। इस समिति को कानू सान्याल लीड कर रहे थे।
कानू ने 1950 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, यानी CPI जॉइन की थी। 1949 में कानू सान्याल ने CPI को बैन करने के विरोध में बंगाल के मुख्यमंत्री बिधान चन्द्र रॉय को काले झंडे दिखाए थे।इसी के चलते उन्हें गिरफ्तार किया गया था। जेल में ही कानू सान्याल की पहली मुलाकात चारू मजूमदार से हुई थी। माओवादी विचारधारा से प्रेरित चारू मजूमदार को ही नक्सलवाद का जनक माना जाता है।
चारू मजूमदार ने छात्रों की इस समिति को एक नारा दिया – ‘बौग्रेओउस शिक्षा बाबयस्था निपट जक’, यानी ‘पूंजीवादी शिक्षा व्यवस्था मुर्दाबाद।’ चारू ने छात्रों को परंपरागत शिक्षा का विरोध करने और हथियार बंद आंदोलन की राह पकड़ने की सीख दी। इसके बाद शहरों में भी छात्र आंदोलनों में शामिल हुए और इस छात्र समिति से जुड़ने लगे।
देशभर के राज्यों में होने लगे प्रदर्शन
1968 के आखिर तक पुलिस और नक्सलबाड़ी ग्रामीणों के बीच झड़प बढ़ चुकी थीं। कानू सान्याल, जंगल संथाल, खोखेन मजूमदार और उनके साथी भूमिगत होकर आंदोलन को चला रहे थे।
अपनी किताब ‘पहला नक्सली’ में बप्पादित्य पॉल लिखते हैं, ‘कानू के पास सिर्फ 29 बंदूकें थीं। चारू भूमिगत थे और नक्सलबाड़ का भरपूर दुष्प्रचार हो रहा था। रोज ही अखबारों में ग्रामीणों के खिलाफ छापा जा रहा था। इसका उल्टा असर ये था कि असम, बिहार, उत्तर प्रदेश, केरल, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, और जम्मू-कश्मीर जैसे दूसरे राज्यों के कॉमरेड और छात्र भी अभियान में शामिल होने लगे।’
राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा
1968 की शुरुआत में नक्सलबाड़ी और आसपास के इलाकों में नक्सली लगातार व्यापारियों और मध्यम वर्गीय किसानों की हत्याएं कर रहे थे। गांव के अलावा, शहरी इलाकों में भी अराजकता फैल गई थी, जिसे रोकने में मुख्यमंत्री प्रफुल्ल चंद्र घोष असफल रहे थे। आखिरकार 20 फरवरी 1968 को सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। दार्जिलिंग के तत्कालीन डिस्ट्रिक्ट पुलिस इंस्पेक्टर अरुण प्रसाद मुखोपाध्याय ने ताबड़तोड़ छापे मारे और कई नक्सली नेताओं को गिरफ्तार कर लिया।
नक्सली नेताओं को गिरफ्तार किया जा रहा था। नक्सलबाड़ी गांव में एक नक्सल नेता की गिरफ्तारी की तस्वीर।
चीन के राष्ट्रपति को अपना राष्ट्रपति कहने लगे नक्सली
इस आंदोलन की सूचना चीन तक पहुंच चुकी थी। माओवादी विचारधारा के समर्थक चारू मजूमदार ने 1968 में एक और नारा गढ़ा। ये था ‘चाइनेर चेयरमैन आमादेर चेयरमैन’ यानी चीन के प्रेसिडेंट हमारे भी प्रेसिडेंट हैं। सितंबर 1968 में चारू के कुछ साथी खोखेन मजूमदार, खुदन मलिक और दीपक विस्वास चीनी राजनीतिज्ञ माओ से मिलने और ट्रेनिंग लेने चीन गए थे। वहां उनका बहुत स्वागत हुआ। द वीक को दिए एक इंटरव्यू में नक्सली खुदन मलिक ने बताया- ‘हमें कहा गया कि तुम चाईनीज की तरह दिखते हो, तुम्हें चीनी सेना में होना चाहिए।’
माओ ने इन नेताओं से कहा, ‘CPI पार्टी भर से इंडिया में क्रांति नहीं आएगी। नक्सलाइट्स ही ये क्रांति ला सकते हैं। मगर आर्म्ड रिवोल्यूशन से पहले जनता का सपोर्ट पाना जरूरी होगा।’
चारू ने कहा, ‘चाइनेर चेयरमैन आमादेर चेयरमैन’, यानी चीन के प्रेसिडेंट हमारे भी प्रेसिडेंट हैं।
छात्रों ने किए बम धमाके, हत्याएं
1968 के आखिर में चीन से लौटने के बाद नक्सली नेता और हिंसक हो गए। पूरे तराई इलाके में पुलिस और जमींदार जाने से डरने लगे थे। इसी बीच 30 अक्टूबर 1968 को कानू सान्याल को पुलिस ने नक्सलबाड़ी के बीरसिंह जोते गांव से गिरफ्तार कर लिया।
पॉल अपनी किताब ‘पहला नक्सली’ में लिखते हैं, ‘कानू की गिरफ्तारी के बाद नक्सलबाड़ी आंदोलनकारी सरकारी अधिकारियों को अपना निशाना बनाने लगे। इसमें छात्र सबसे आगे थे। हथगोले फेंकना, जगह-जगह बम विस्फोट करना अब छात्रों के लिए आम हो गया था। जुलाई 1969 में पश्चिम बंगाल के साउथ ब्लॉक में इन छात्रों ने सुभाष चंद्र बोस द्वारा स्थापित राजनीतिक दल ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ के नेता हेमंत बोस को जनता के सामने मार डाला।’
इस हिंसा को कंट्रोल नहीं कर पाने पर नक्सलबाड़ी में CRPF लगा दी गई। आरोपियों को देखते ही गोली मारने के आदेश दिए गए।
मई 1969 में संयुक्त मोर्चा सरकार ने दार्जिलिंग और सिलीगुड़ी की जेलों में बंद सभी नक्सलबाड़ी क्रांतिकारियों को आम-माफी देकर उन्हें रिहा कर दिया था। मगर चारू ने जेल से बाहर आकर ‘वॉर ऑफ एनहिलेशन’ यानी जमींदारों के कम्प्लीट सफाए का नारा दिया। नक्सली जमींदारों और पुलिस को मारने के लिए एक्टिव हो गए।
स्टूडेंट्स कॉलेज और यूनिवर्सिटीज में बम धमाके कर पढ़ाई का विरोध करने लगे थे।
शिक्षा को क्रांति में रुकावट मानने लगे छात्र
1969 से 1970 के बीच के समय में नक्सलियों ने शिक्षण संस्थानों को जमकर निशाना बनाया। पॉल अपनी किताब ‘पहला नक्सली’ में लिखते हैं, ‘चारू मजूमदार ने छात्रों को स्कूल-कॉलेजों का बहिष्कार करने का नारा दिया था। अब छात्रों को भी लगने लगा था कि परंपरागत शिक्षा का कोई फायदा नहीं है, बल्कि ये क्रांति के रास्ते में रुकावट है।’
पॉल के अनुसार, ‘आंदोलनकारी छात्र स्कूल-कॉलेजों पर बम गिरा रहे थे। हर जगह तोड़फोड़ कर रहे थे। इसके साथ ही वो दूसरे छात्रों को स्कूल-कॉलेज का पूरी तरह बहिष्कार करने को प्रेरित कर रहे थे। पूरे पश्चिम बंगाल में छात्रों ने स्कूल-कॉलेजों में आग लगानी शुरू कर दी। किताबें जला दीं और कई यूनिवर्सिटी की परीक्षाओं में भी रुकावट डाली।’
नक्सलियों को लीड करने लगे छात्र
1970 में अखबारों में रोज ही नक्सलबाड़ की खबरें छप रहीं थीं। वहीं चारू ने अपने संपर्कों के माध्यम से दुष्प्रचार भी किया था कि ये आंदोलन शिक्षा में पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ है। ऐसे में नक्सली आंदोलन पूरी तरह छात्रों का आंदोलन बन चुका था।
पॉल की किताब ‘पहला नक्सली’ के अनुसार, ‘अब ये आंदोलन खेत मजदूर और गरीब किसानों के बीच का नहीं रह गया था, बल्कि इसमें सैकड़ों छात्र जुड़ गए थे। ये छात्र देश की नामी यूनिवर्सिटी और कॉलेजों के थे। इन छात्रों ने चारू को कभी देखा तक नहीं था, लेकिन वे फिर भी इस आंदोलन से जुड़ाव महसूस कर रहे थे।’
इस आंदोलन में स्टूडेंट्स अपनी-अपनी लोक भाषाओं जैसे मैथिली, मगही और भोजपुरी में गीत लिखकर गांव-गांव जाकर लोगों को बता रहे थे कि नक्सलबाड़ी आंदोलन क्यों चल रहा है।
पुलिस मुठभेड़ में 2 हजार से ज्यादा लोगों की जान गई
नक्सलबाड़ी में हिंसा के समय पुलिस बल के अधिकारी रहे अशोक मुखोपाध्याय अपनी किताब ‘चारू मजूमदार: द ड्रीमर रिबेल’ में लिखते हैं, ‘बंगाल में 1967 से 1972 के बीच पुलिस मुठभेड़ में ऐसे 2 हजार लोग मारे गए थे, जिन पर नक्सली होने का आरोप था। वहीं, पूरे भारत में मरने वालों का ये आंकड़ा लगभग 5 हजार था। मारे गए लोगों में से कई सारे स्टूडेंट्स थे और उनमें IIT खडगपुर, कोलकाता के प्रेसिडेंसी और स्कॉटिश चर्च कॉलेज और जादवपुर विश्वविद्यालय के छात्र भी शामिल थे।’
जब पुलिस का रुख सख्त हुआ तो नक्सलबाड़ी नेता सरकारी अधिकारियों को अपना निशाना बनाने लगे।
राज्य में 3 बार राष्ट्रपति शासन लगा
मई 1969 में आंदोलनकारी जमींदारों और पुलिस को मारने के लिए एक्टिव हो गए। इसके बाद अजॉय मुखर्जी के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा सरकार 19 मार्च 1970 को बर्खास्त कर दी गई और बंगाल में दो सालों में दूसरी बार राष्ट्रपति शासन लगा।
अगस्त 1970 में पश्चिम दिजनापुर और दार्जिलिंग में नक्सलियों ने पुलिस कैंप पर हमला कर राइफलें लूट लीं। इसके कुछ समय बाद ही पुलिस ने फिर से कानू सान्याल और उनके साथियों को नक्सलबाड़ी से गिरफ्तार कर लिया।
2 अप्रैल 1971 को पश्चिम बंगाल से राष्ट्रपति शासन हटा लिया गया। कांग्रेस के गठबंधन में बनी सरकार में प्रफुल्ल चंद्र घोष नए मुख्यमंत्री बनाए गए। हालांकि नई सरकार भी ढाई महीने ही चल पाई। लगातार बढ़ती हिंसा के चलते 28 जून 1971 को तीसरी बार राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया।
छात्रों को काबू करने में पुलिस सिपाही भी घायल हो जाते थे।
नक्सलबाड़ के तीनों बड़े नेता अकाल मौत मरे
23 मार्च 2010, दोपहर के 3 बजे। सिलीगुड़ी शहर के सेबदेला जोते गांव में अचानक हलचल मच गई। कई पत्रकार, पुलिस की एक बड़ी टुकड़ी और सैकड़ों ग्रामीण एक मिट्टी की झोपड़ी के बाहर खड़े थे। झोपड़ी की मिट्टी की दीवारों पर लेनिन, स्टालिन और कुछ अन्य साम्यवादी नेताओं की तस्वीरें लगी थीं और कानू सन्याल का शव फांसी पर झूल रहा था।
1972 में चारू मजूमदार मोस्ट वांटेड थे। उन्हें 16 जुलाई को गिरफ्तार किया गया और 28 जुलाई को लाल बाजार पुलिस थाने में उनकी मौत हो गई। मरने के बाद उनकी बॉडी भी परिवार को नहीं दी गई थी।
1977 में जंगल संथाल जेल से रिहा हुए। तब तक चारू की मौत हो चुकी थी और कानू पार्टी छोड़ चुके थे। संथाल अकेलेपन में शराबी हो गए और 1981 में गरीबी से मरे।
नक्सलवाद के शुरुआती नेता आज जिन्दा नहीं हैं, मगर दशकों बाद आज भी नक्सलबाड़ी में एक आर्मी यूनिट और एक एयरफोर्स बेस है, जबकि CRPF हमेशा यहां मौजूद रहती है।
इस सीरीज के बाकी एपिसोड भी पढ़ें…
रकस – 2:OBC आरक्षण लागू होते ही संसद घेरने पहुंचे 10 हजार स्टूडेंट: सेना ने संभाला मोर्चा, 65 ने दी जान; छात्र आंदोलन जिसने 2 पीएम बदले
रकस – 1:मेस की फीस 40 रुपए बढ़ी तो विधानसभा पहुंच गए छात्र; पुलिस फायरिंग में 108 स्टूडेंट्स मरे, देश में इमरजेंसी लगी